Sunday, January 18, 2009

ज़िन्दगी क्या है...


वो हमसे पूछते हैं हाल-ए-ज़िन्दगी क्या है, 
और हम उनसे पूछ बैठे ज़िन्दगी क्या है|  

शीशा-ए-दिल है यहाँ, खून-ए-जिगर भी है यहाँ, 
खेलने वाले बता तेरी आरजू क्या है|  

हमने बाजों को बनाया है मसीहा अपना, 
फंस गए पंजो में फ़िर बाज़ की गलती क्या है|  

जिस्म बर्दाश्त करना सीख गया काला धुआं, 
रूह भी सीख ले ये हुनर फ़िर मुश्किल क्या है|

ज़िन्दगी जा रही है किस तरफ़ ख़बर ही नही, 
ख़ुद से कोई पूछ ले ज़रा, 'मेरी मंजिल क्या है?' |

1 comment:

मिथिलेश श्रीवास्तव said...

वाह, इतना ढेर सारा दर्द कहां से लाते हैं प्रभु, दिल में तो दर्द समझ में आता है लेकिन उसका एक-एक कतरा यूं सामने उकेर देना बहुत बड़ी कला है,जनाब।
आपका हर एक अल्फाज हर किसी की जिंदगी का दर्द बयां करता है।