Tuesday, November 18, 2008

बांसूरी और बन्दूक...

बंदूकों ने पैठ बना ली बांसूरी के गाँव में,
फूलों ने तब ठान लिया हम चुभेंगे पाँव में.
जिन गलीयों में हमेशा बसती थी सोंधी खुशबू,
रक्त रंजित रिश्ते क्यों पनप गये उस ठांव में.
जाने कैसे प्रेम-पथिक हम बन गये असुरानुयायी,
सजने लगे लाशों के ढेर पीपल की छाँव में.
बच्चों की किलकारियां गूंजनी अब बंद हो गयी,
बारूद जबसे बिकने लगे खिलौने वाली नांव में.

(मात्रा सम्बन्धी अशुद्धियों के लिए क्षमा करें - दिलीप)

Saturday, November 15, 2008

दुखांत...


ख़ुद को बचाते हुए,

सहेजते, सजते, सवंरते, और समेटते हुए,

बढ़ रहे हैं हम सभी,

उसी ओर, नष्ट होने के लिए...